प्राक्कलन क्या है

प्राक्कलन की परिभाषा

निर्माण कार्य या प्रोजेक्ट पर होने वाले व्यय तथा सामग्रियों की मात्रा की अनुमानित लागत (estimated cost) का पूर्वानुमान परिकलन (calculation) प्राक्कलन (estimating) कहलाता है।
प्राक्कलन

प्राक्कलन तैयार करने के मुख्य उद्देश्य

प्राक्कलन तैयार करने के निम्न उद्देश्य हैं -

(i) निर्माण कार्य आरम्भ करने से पूर्व उसकी अनुमानित लागत ज्ञात करना।
(ii) निर्माण कार्य में उपयोग आने वाली विभिन्न प्रकार की सामग्रियों का परिमाण निकालना ।
(iii) निर्माण कार्य करने के लिए विभिन्न प्रकार के मजदूरों की संख्या निकालना ।
(iv) निर्माण कार्य पूर्ण करने के लिये सम्भावित समय ज्ञात करना ।
निर्माण कार्य की अनुमानित लागत को उपलब्ध धन के बराबर करने उपाय

किसी निर्माण कार्य पर होने वाले व्यय से यदि धन की व्यवस्था कम है तोनिर्माण कार्य में कमी करके या विशिष्टियों में परिवर्तन करके प्रोजेक्ट की अनुमानित लागत को घटाकर उपलब्ध धन के बराबर किया जाता है ।

अन्तर्राष्ट्रीय इकाई पद्धति (systems of international units) में माप तथा
भुगतान की इकाइयाँ

पद्धति निम्नलिखित प्रकार से प्रस्तुत की गई है।
(i) मीटर (m) - लम्बाई के लिये,
(ii) किलोग्राम (Kg) - मात्रा के लिये,
(ii) सैकेण्ड (S) - समय के लिये,
(iv) एम्पीयर (A) - विद्युत प्रवाह के लिये,
(v) डिग्री कैल्विन (K) - ऊष्णता तापमान,
(vi) कैन्डेला (Cd) - प्रदीप्त इकाई ।


प्राक्कलन के प्रकार

प्राक्कलन निम्नलिखित प्रकार के होते हैं -
(i) स्थूल या प्रारम्भिक प्राक्कलन (approximate estimate),
(ii) कुर्सी क्षेत्रफल प्राक्कलन (plinth area estimate),
(ii) घनाकार दर प्राक्कलन (cubical content estimate),
(iv) विस्तृत प्राक्कलन (detailed estimate),
(v) स्थूल परिमाण विधि प्राक्कलन (approximate quantity method estimate),
(vi) अनुपूरक प्राक्कलन (supplementry estimate),
(vii) संशोधित प्राक्कलन (revised estinmate),
(vii) वार्षिक रखरखाव प्राक्कलन (annual maintenance estimate) ।


प्राक्कलन में मुख्य प्रशासकीय स्वीकृति एवं तकनीकी भी होती है ये क्या है

प्रशासकीय स्वीकृति (Administrative Approval) किसे कहते है:-

 जब कोई विभागकोई कार्य या परियोजना निर्माण कराना चाहता है तो सर्वप्रथम उस विभाग के सक्षम अधिकारीसे उसकी लागत की स्वीकृति या मंजूरी लेना आवश्यक है । इस स्वीकृति द्वारा इन्जीनियरिंगविभाग को निर्माण कार्य आरम्म करने का अधिकार मिल जाता है । प्रशासकीय स्वीकृति का अर्थ है कि सम्बन्धित विभाग ने प्रस्ताव की औपचारिक स्वीकृति दे दी है। इन्जीनियरिंग विभाग स्थूल,
अनुमान तथा प्रारम्भिक नक्शे बनाकर सम्बन्धित विभाग को प्रशासकीय स्वीकृति के लिये भेजत है ।

(i) तकनीकी स्वीकृति (Technical Sanction) किसे कहते है:-
 किसी निर्माण कार्य के विस्तृत
प्राक्कलन तथा लागत की इन्जीनियरिंग विभाग के सक्षम अधिकारी द्वारा स्वीकृति को तकनीकी स्वीकृति कहते हैं। प्राक्कलन की तकनीकी स्वीकृति के बाद ही निर्माण कार्य आरम्म किया जा सकता है । मुख्य अभियन्ता (chief engineer) 15 लाख रुपये से अधिक लागत के काया का तकनीकी स्वीकृति प्रदान करने की क्षमता रखता है। 15 लाख रुपये से कम लागत के कार्यो की तकनीकी स्वीकृति अधीक्षण अभियन्ता (superintending engineer) तथा 5 लाख रुपये तक के कार्यों की तकनीकी स्वीकृति के अधिकार अधिशासी अभियन्ता (executive engineer)को होते हैं।


पारिस्थितिकी किसे कहते हैं? पारिस्थितिकी की शाखाएँ क्या है?

पारिस्थितिकी किसे कहते हैं उसकी प्रमुख शाखाएं

दोस्तों इस पोस्ट में मैं आपको पारिस्थितिकी किसे कहते है के बारे में बताने जा रहा हूं पारिस्थितिकी किसे कहते है। इसके बारे में बहुत सारी जानकारी आपको इस पोस्ट में देने जा रहा हूं इसकी परिभाषा भी इसमें बताई गई है।

पारिस्थितिकी' शब्द का प्रयोग सर्यप्रथम सन् 1868 में रिटर महोदय ने किया था, लेकिनइसको पूर्ण रूप से परिभाषित और विस्तृत अध्ययन का श्रेय जर्मन जीव वैज्ञानिक आनस्ट हैकल को जाता है। आर्नेस्ट हैकल ने पारिस्थितिकी को परिभाषित करते हुए लिखा है कि 'जैविक और अजैविक वातावरण के साथ प्राणियों के अन्तः सम्बन्धों का सम्पूर्ण अध्ययन ही पारिस्थितिकी है। टायलर ने पारिस्थितिकी को ऐसे विज्ञान के रूप में परिभाषित किया है जो सभी जीवों के
सभी सम्बन्धों का तथा उनके सभी वातावरणों के साथ सम्बन्धों का अध्ययन करता है।
पारिस्थितिकी किसे कहते है इसकी परिभाषा

पारिस्थितिकी किसे कहते हैं

अंग्रेजी भाषा का 'इकोलॉजी' (Ecology) शब्द ग्रीक भाषा के दो शब्दों oikos और logos
से मिलकर बना है। Oikos का अर्थ 'घर' (House) या 'रहने का स्थान' तथा logos का अर्थ 'अध्ययन' (Study) या 'चर्चा' (Discussion) है अतः शाब्दिक अर्थ
में पारिस्थितिकी (Ecology) जीवधारियों और उनके आवासों के बीच होने वाले सम्बन्धों का
अध्ययन करता है। इस प्रकार पारिस्थितिकी जीव- विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत जीवों के वातावरण के साथ अन्तः सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है

उपरोक्त सभी परिभाषाओं से यह निष्कर्ष निकलता है कि पारिस्थितिकी प्रकृति में पाये जाने वाले विभिन्न जीव जन्तुओं के आपसी सम्बन्धों के साथ-साथ उनके जीवन को प्रभावित करनेवाले विभिन्न जैविक तथा अजैविक घटकों का अध्ययन करता है।

पारिस्थितिकी की शाखाएँ :

 पारिस्थितिकी की निम्नलिखित शाखाएँ हैं-
1. स्वपारिस्थितिकी (Autoecology): जब किसी जीव विशेष अथवा एक ही स्पेशीज के
सभी जीवों के सामूहिक जीवन पर पर्यावरण के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है, तो उसे
स्वपारिस्थितिकी कहते हैं।
2. संपारिस्थितिकी (Synecology): जब जीव के विभिन्न समूहों और उनका पर्यावरण के
साथ सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है, तो उसे संपारिस्थितिकी कहा जाता है संपारिस्थितिकी को दो भागों में विभाजित किया गया है-
(a) जलिए पारिस्थितिकी (Aquatic ecology) : इसके अन्तर्गत जलीय जीवन के विभिन्न समुदायों का अन्तः सम्बन्ध और उनका पर्यावरण के साथ सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।
(b) स्थलीय पारिस्थितिकी (Terrestrial ecology): इसके अन्तर्गत स्थलीय जीवन के अन्तः सम्बन्धों और उसके वातावरण का अध्ययन किया जाता है।
3. प्राणी पारिस्थितिकी (Animal ecology) : इसके अन्तर्गत विभिन्न प्राणियों के आपसी सम्बन्धों तथा वातावरण का अध्ययन किया जाता है।
4. पादप पारिस्थितिकी (Plant ecology) : इसके अन्तर्गत समुदायों के वातावरण के साथ
संबंधों का अध्ययन किया जाता है।

5. आवास पारिस्थितिकी (Habitat ecology): इसके अन्तर्गत जैवमण्डल में पाए जाने वाले जीवधारियों के विभिन्न प्राकृतिक आवासों और उनका वातावरण के साथ सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।
6. संरक्षण पारिस्थितिकी (Conservation ecology) : इसके अन्तर्गत विभिन्न प्राकृतिक
संसाधनों के उचित प्रबंध, प्रयोग तथा पर्यावरणीय दृष्टिकोण से उनके संरक्षण के महत्व का अध्ययन किया जाता है।
7. विकिरण पारिस्थितिकी (Radiation ecology): इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के विकिरण और रेडियो सक्रिय पदार्थों का पर्यावरण एवं जीवधारियों पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया जाता है।
पारिस्थितिकी किसे कहते है कि पूरी जानकारी आपको

8. मानव पारिस्थितिकी (Human ecology) : इसके अन्तर्गत मानव और उसको प्रभावित
करने वाले विभिन्न वातावरणों का अध्ययन किया जाता है।


यदि आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट करके बताएं कि आप को और किस तरह की पोस्ट चाहिए हम उस पोस्ट को लिखने की आवश्यक कोशिश करेंगे और आपके सुझावों से हमें बहुत ही अच्छा लगता है कृपया अपने सुझाव कमेंट करके जरूर बताएं और दोस्तों को शेयर करें।
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पादप हार्मोन किसे कहते है।पादप हार्मोन के प्रकार|पादप हार्मोन के प्रश्न

पादप हार्मोन किसे कहते है। पादप हार्मोन के प्रकार और कार्य

पौधों की जैविक क्रियाओं के बीच समन्वय स्थापित करने वाले रासायनिक पदार्थ को पादप हार्मोन कहते हैं। ये पौधों की विभिन्न अंगों में बहुत लघु मात्रा में पहुँचकर वृद्धि एवं अनेक उपापचयी क्रियाओं को नियंत्रित एवं प्रभावित करते हैं।

 इनके संश्लेषण का स्थान इनके क्रिया क्षेत्र से दूर होता है एवं ये विसरण द्वारा क्रिया क्षेत्र तक पहुँचते हैं। बहुत से कार्यनिक यौगिक जो पीधों से उत्पन्न नहीं होते, परन्तु पादप हार्मोन की तरह ही कार्य करते हैं, उन्हें भी वृद्धि नियंत्रक पदार्थ (Growth regulators) कहा जाता है।
पादप हार्मोन किसे कहते है पादप हार्मोन के प्रकार

रासायनिक संघटन तथा कार्यविधि के आधार पर हार्मोन्स को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित
किया गया है-
1. ऑक्जिन (Auxin),
2. जिबरेलिन्स (Gibberellins),
3. साइटोकाइनिन(Cytokinin),
4. ऐबसिसिक एसिड (Abscisic acid
5. एथिलीन (Ethylene)।
6. फलोरिजिन्स (Florigens)


पादप हार्मोन के प्रकारों का विस्तार से वर्णन



1. ऑकिजिन (Auxin) : ऑक्जिन कार्बनिक यौगिकों का समूह है जो पौधों में कोशिका
विभाजन  तथा कोशिका दीर्घन में भाग लेता है। इन्डोल एसीटिक एसिड एवं नेफ्यैलिन एसीटिक एसि ड इसके प्रमुख उदाहरण हैं। तने में जिस ओर ऑक्जिन की अधिकता होती है, उस ओर वृद्धि अधिक होती है। जड़ में इसकी अधिकता वृद्धि को कम करती है ।

कार्य:
(a) ऑक्जिन कोशिका दीर्घन द्वारा स्तम्भ या तने की वृद्धि में सहायक होते हैं।
(b) ये जड़ की वृद्धि को नियंत्रित करते हैं।
(c) ये बीजरहित फल के उत्पादन में सहायक होते हैं।
(d) पत्तियों के झड़ने तथा फूलों के गिरने पर ऑक्जिन का नियंत्रण होता है।
(e) गेहूं एवं मक्का के खेतों में ऑक्जिन खर-पतवार नाशक का कार्य करते हैं।

2. जिबरैलिन्त (Gibberellins): जिबरेलिन एक जटिल कार्बनिक यौगिक है, जिसका
उदाहरण जिवरैलिक एसिड है।
कार्य : (a) जिबरैलिन्स कोशिका विभाजन तथा कोशिका दीर्घन द्वारा तने को लम्बा बनते
(b) जिबरैलिन्स हार्मोन का प्रयोग करके बीजरहित फलों का उत्पादन किया जाता है।
जिसके कारण पौधे वृहत् आकार के हो जाते हैं।
(c) जिबरैलिन्स हार्मोन बीजों के अंकरण में भाग लेते हैं। बीजों की सुपुप्तावस्या को

3. साइटोकाइनिन (Cytokinins): साइटोकाइनिन क्षारीय प्रकृति का हार्मोन है। काइनिके। Kinetin एक संश्लेषित साइटोकाइनिन है साइटोकाइनिन का संश्लेषण जड़ों के अग्र सिरो होता है, जहाँ कोशिका-विभाजन  होता है।

कार्य: (a) साइटोकाइनिन कोशिका विभाजन के लिए एक आवश्यक हार्मोन है।
(b) यह ऊतकों एवं कोशिकाओं का विभेदन का कार्य करती है।
(c) साइटोकाइनिन पाश्श्व कलिकाओं की वृद्धि को प्रारम्भ करते क.
(d) साइटोकाइनिन बीजों के अंकुरण को प्रेरित करते हैं।

4. ऐबसिसिक अम्ल (Abscisic acid): यह एक वृद्धिरोधी (Growth inhibitor) हार्मोन है , अर्थात् यह पीधे की वृद्धि को रोकता है।

कार्य: (a) ऐबसिसिक अम्ल पौधों की वृद्धि को रोकता है।
(b) यह वाष्योत्सर्जन की क्रिया का नियंत्रण रंध्रों (Stomata) को बन्द करके करता है।
(c) यह बीजों तथा कलिकाओं को सुषुप्तावस्था में लाता है।
(d) यह पत्तियों के झड़ने की क्रिया को नियंत्रित करता है
(e) ऐबसिसिक एसिड पौधों से फूलों एवं फलों के पृथक्करण की क्रिया का भी नियंत्रण
करता है।


> 5. एथिलीन (Ethylene) : एथिलीन गैसीय रूप में पौधों में पाया जाने वाला हार्मोन है।यह एकमात्र गैस रूप में होता है।यह पोधो की लम्बाई में वृद्धि होती है परन्तु यह पौधे की लम्बाई में वृद्धि को रोकता है।
इस हार्मोन का निर्माण पौधे के प्रत्येक भाग में होता है।

कार्य : (a) एथिलीन के द्वारा पौधों की चौड़ाई में वृद्धि होती है।
(b) यह पौधों की पत्तियों एवं फलों के झड़ने की क्रिया को नियंत्रित करता है ।
(c) पीधे के विभिन्न भागों की सुषुप्तावस्था को समाप्त कर इसे अंकुरण के लिए प्रेरित करता है।
(d) एविलीन हार्मोन फलों के पकने  में मुख्य भूमिका निभाता है।

6. फलोरिजिन्स (Florigens): फ्लोरिजिन्स का संश्लेषण पत्तियों में होता है, परन्तु ये फलोके  खिलने में मदद करते हैं। इसलिए फ्लोरिजिन्स को फूल खिलाने वाला हामान भी कहते हैं।

कार्य: (a) इस हार्मोन के द्वारा फूलों का खिलना नियंत्रित होता है।

इस पोस्ट में मैंने पादप हार्मोन किसे कहते है और हार्मोन के प्रकार के बारे में जानकारी दी है यदि आपको यह पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट करके बताएं कि आप इस प्रकार की ओर पोस्ट चाहते हैं ताकि हम ओर भी इस तरह की जानकारी आपकी लिए यहां लेके आते रहे।

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भारतीय रेल क्या है, रेल का विकास कैसे हुआ

भारत में रेल का विकास कैसे हुआ
भारत में रेल का विकास कैसे हुआ

भारतीय रेल
आज में इस पोस्ट में आपको यह बताने जा रहा हूं कि भारत ने रेल का विकास कैसे हुआ और इसी बारे ने बहुत सारे रेल से जुड़े तथ्य को लेकर काफी महत्वपूर्ण बातें बताना चाहता हूं।तो चलिए आगे देखिए इस पोस्ट को पूरा जरूर पढ़े।
भारत में रेल का विकास कैसे हुआ

यातायात के क्षेत्र में रेलों के विकास का महत्वपूर्ण योगदान है । कच्चे माल को देश के एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने के लिए, एक सुदृढ़ परिवहन व्यवस्था स्थापित करने के लिए, लार्ड डलहौजी ने 1844 में भारत में रेलें चलाने की योजना बनाई।

भारत में रेल का विकास कैसे हुआ

ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्वीकृति मिलने पर विभिन्न प्राइवेट कम्पनियों में रेल पथ का काम शुरु किया और 16 अप्रेल 1853 में भारत में पहली रेलगाड़ी बम्बई तथा थाना के बीच चलाई गई । रेलों के विस्तार के साथ-साथ देश की आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति में भी परिवर्तन होने लगा । अतः शनैः-शनैः रेलों का विकास बढ़ता गया।
भारत में रेल का विकास कैसे हुआ

रेलों के मुख्य लाभ (advantages)

भारत में रेल का विकास कैसे हुआ
रेलों के मुख्य लाभ निम्नलिखित हैं।

1)  अधिक यात्रियों के लिए लम्बी दूरी की यात्रा तय करने का उत्तम साधन है ।
2)आपातकालीन स्थिति अथवा अकाल पड़ने पर आवश्यक वस्तुयें, खाद्य सामग्री, कपड़े दवाइयाँ कम समय में प्रभावित क्षेत्र में पहुँचायी जा सकती हैं ।
3) कृषि, उद्योग तथा व्यापार के उत्थान में रेलें मुख्य भूमिका निभाती हैं।
4) देश के सभी भागों में आसानी से तथा कम समय में पहुँचा जा सकता है । रेलसेवा दिन रात उपलब्ध रहती है।

5) रेल परिवहन अन्य परिवहनों की तुलना में सुरक्षित, सुविधाजनक, सुखदायक तथा संस्ता होता है।
6) बड़े-बड़े निर्माण कार्यों, जैसे बाँध, विद्युत् गृह, मिल, नहर के लिए भारी तथा बड़ी मात्रा में सामान पहुँचाने के लिए रेलमार्ग अति आवश्यक है ।
7) रेल्वे विभाग में लाखों लोगों को दृश्य तथा अदृश्य रूप में रोजगार मिलता हैं, जिससे देश में बेकारी की समस्या कम होती है।
8) रेलें सरकार की आय का मुख्य स्रोत हैं।
9) देश में कानून व्यवस्था (law and order) बनाये रखने में रेलें बड़ा योगदान देती हैं ।
10) युद्ध काल में सेना तथा सैनिक सामान देश की सीमाओं तक ले जाने में रेलें बहुत उपयोगी सिद्ध होती हैं।
भारत में रेल का विकास कैसे हुआ

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जीवाणु क्या होते हैं । जीवाणु की खोज किसने की । उसकी संरचना । लक्षण । और जीवाणुओं का पोषण Bacteria in hindi

इस पोस्ट में जीवाणु क्या है उसकी खोज किसने की ,लक्षण ,संरचना और पोषण की पूरी जानकारी के साथ-साथ जीवाणुओं का आर्थिक महत्व को बताया है।

हरितलवक रहित कोशिकाओं वाले , एककोशिकीय या बहकोशिकीय  प्रोकैरियोटिक सूक्ष्मजीव जीवाणु(Bacteria) होते हैं। जीवाणु वास्तव में पौधे नहीं होते हैं। इनकी कोशिकाभित्ति का रासायनिक संगठन पौधों से बिल्कुल भिन्न होता है। यद्यपि कुछ जीवाणु प्रकाश-संश्लेषण क्रिया किया करते हैं लेकिन उनमें विद्यमान बैक्टीरियोक्लोरोफिल पौधों में उपस्थित क्लोरोफिल से बिल्कुल भिन्न होता है।
ये एक एककोशिकीय जीव है।मिलिमीटर तक ही इनका आकार होता है। [जीवाणु क्या होते हैं । जीवाणु की खोज किसने की । उसकी संरचना । लक्षण । और जीवाणुओं का पोषण Bacteria in hindi]
जीवाणु क्या होते हैं । जीवाणु की खोज किसने की । उसकी संरचना । लक्षण । और जीवाणुओं का पोषण Bacteria in hindi

जीवाणु की खोज

जीवाणु की खोज 1683 ई० में हॉलैंड (Holland) के वैज्ञानिक एण्टॉनी वॉन ल्यूवेनहॉक(Antony Von Leeuwenhock) ने की थी। उन्होंने अपने एक अविष्कार  बनाए हुए सूक्ष्मदर्शी से दाँत खुरचन में इन जीवाणुओं को देखा तथा इन्हें सूक्ष्म जीव  कहा ।इसीकारण से ल्यूवेनहॉक को जीवाणु(Bacteria) विज्ञान का पिता (Father of Bacteriology) कहा जाता है।एहरेनबर्ग (Ehrenberg) ने 1829 ई० में इन्हें जीवाणु (Bacteria) नाम दिया लुई पाश्चर ने किण्वन (Fermentation) पर कार्य किया और बतलाया कि यह जीवाणुओं द्वारा ही होता है।

उन्होंने यह भी स्पष्ट रूप से बताया कि पदार्थों का सड़ना तथा अनेक रोगों का कारण सूक्ष्मजीव होते हैं। पाश्चर ने अपने कार्य के आधार पर रोगों के जर्म मत को प्रतिपादित किया। रॉबर्ट कोच (Robert Koch) ने 1881 ई० में यह सिद्ध किया कि चौपायों में होने वाली एन्थ्रेक्स  रोग तथा मनुष्यों में तपेदिक रोग तथा हैजा रोग का कारण भी जीवाणु है। रॉबर्ट कोच ने ही सर्वप्रथम जीवाणुओं का कृत्रिम सवद्द्धन  किया। लिस्टर ने जीवाणुओं के सम्बन्ध में प्रतिरोधी मत प्रस्तुत किया।
जीवाणुओं के अध्ययन करने वाली विज्ञान को जीवाणु विज्ञान (Bacteriology) के नाम से जाना जाता है।

यह भी पढ़े: विषाणु की खोज 

जीवाणु(Bacteria) कहा पाए जाते है :
जीवाणु बहुत सूक्ष्म होते हैं एवं प्रायः सभी जगह पाये जाते हैं। ये अनुकूल तथा प्रतिकूल दोनों ही परिस्थितियों में पाये जाते हैं। ये मानव द्वारा सांस लेने की हवा, पीने के पानी तथा भोजन के अंदर मौजूद रहते हैं। ये मृदा में, दूसरी जीवित वस्तुओं में और मृत जैव पदार्थों में भी पाए जाते हैं। मानव के मुँह के अंदर भी कई प्रकार के जीवाणु पाये जाते हैं।

जीवाणु(Bacteria) की संरचना:
इनका सम्पूर्ण शरीर एक ही कोशिका युक्त बना होता है। कोशिका के रासायनिक संगठनइ सभी तरफ एक कोशिकाभित्ति पायी जाती है । कोशिकाभित्ति के नीचे कोशिका झिल्ली की बनी होती है। इसके कोशिका द्रव्य
में माइटोकॉण्डरिया, अंतःद्रव्य जालिका तथा अन्य विकसित कोशिकांग का अभाव होता है।इनमें केन्द्रकभित्ति और क्रोमोसोम का भीअभाव होता है। इनमें प्राथमिक प्रकार का
केन्द्रक पाया जाता है जिसे न्यूक्लिआइड(Nucleoid) कहते हैं। जीवाणु(Bacteria) में रोम और कशाभिका भी पाए जाते हैं जो उन्हेंगमन, पोषण एवं प्रजनन में सहायता प्रदान
करते हैं।
जीवाणु क्या है उसकी खोज ,लक्षण ,संरचना और पोषण की पूरी जानकारी
जीवाणु के सामान्य लक्षण :-

1. एककोशिकीय जीव हैं जो एकल या समूहों में पाये जाते हैं।
2.इनमें सत्य केन्द्रक का अभाव होता है।
3.विषाणु को छोड़कर जीवाणु सबसे सरलतम जीव है।
4. इनमें जनन मुख्य रूप से विखण्डन द्वारा होता है।
5.इनकी कोशिकाभिक्ति मोटी तथा काइटिन (Chitin) की बनी होती है।
6. सभी स्थानों पर पाये जाते हैं।
7.ये परजीवी, मृतोपजीवी अथवा सहजीवी होते हैं।
৪. इनकी कोशिका में लवक, माइटोकॉण्ड्रिया गॉल्जी उपकरण तथा अंतःद्रव्यी जालिका
नहीं होते।
9. इनका आकार 2-10π तक होता है।
जीवाणु(Bacteria) की बनावट(आकृति):-
बनावट के आधार पर जीवाणु निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

1. शलाकवत् (Bacillus): इस प्रकार का जीवाणु छड़नुमा या बेलनाकार आकृति का होता
है। जैसे-बेसिलस एन्थ्रासिस (Bacillus anthracis)।

2. गोलाकार (Coccus) : गोलाकार आकृति के जीवाणुओं को कोकस (Coccus) के नाम
से जाना जाता है। ये सबसे छोटे जीवाणु होते हैं कोशिकाओं के विन्यास के आधार पर ये कई
प्रकार के होते हैं:
(a) माइक्रोकोकाई (Micrococci): एक कोशिका के रूप
में, जैसे-माइक्रोकोकस (Micrococcus)।
(b) डिप्लोकोकाई (Diplococci) : दो -दो कोशिकाओं
के समूह में, जैसे-डिप्लोकोकस न्यूमोनी (Diplococcus
pneumoniae)
(c) स्ट्रेप्टोकोकाई (Streptococci): अनेक कोशिकाओं
के समूह में, जैसे-स्ट्रेष्टोकोकस लैक्टिस (Streptococcus
lactis)
(d) सारतिनी (Sarcinae): 8, 64 अथवा 128 के घनाकू
तिक पैकेट में, जैसे-सारसिना (Sarcina)

3. सर्पिलाकृतिक  :
इस प्रकार का जीवाणु Coiled अथवा Spiral होता है। जैसे- स्पाइरिलम
रूप्रेम

जीवाणु में पोषण (Nutrition in bacteria):

जीवाणुओं में 2 प्रकार का पोषण होता है

1. स्वपोची पोषण :
 इस प्रकार के पोषण में जीवाणु अपने भोजन का निर्माण स्वयं ही कर पाते है अपने आप ही के लेते हैं इसके अन्तर्गत दो प्रकार के पोषण आते हैं-

a) प्रकाश संश्लेषण (Photo synthetic) :
इस प्रकार के पोषण में जीवाणु अपना भोजन प्रकाश ऊर्जा का उपयोग करके अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। इनमें पर्णहरित की जगह जीवाणु-पर्णहरित होता है। जैसे-क्रोमैटियम (Chromatium),रोडोस्पिरिलम(Rhodospirillum) आदि ।

b) रसायन संशलेशी (Chemosynthetic) : इस प्रकार के पोषण के अन्तर्गत जीवाणु
अकार्बनिक पदार्थों के ऑक्सीकरण से ऊर्जा  प्राप्त करके भोजन बनाते है और भोजन प्राप्त करते हैं। जैसे-नाइट्रोसोमोमास, नाइट्रोबैक्टर
आदि।

2)विषमपोशी पोषण (Heterotrophic nutrition):
इस प्रकार के पोषण के द्वारा
जीवाणु अपना भोजन दूसरे जीवों से प्राप्त करते हैं ये तीन प्रकार के होते हैं-

a)परजीवी: इस प्रकार के पोषण के अन्तर्गत जीवाणु दूसरे जीव पर आश्रित रहते है।

b) सहजीवी (Symbiotic): इस प्रकार के पोषण में जीवाणु अन्य जीव के शरीर में रहकर
भोजन लेते रहते है, लेकिन उस जीव को किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाते हैं। जैसे-राइजोबियम(Rhizobium)

c) मृतोपजीबी (Saprophytic): इस प्रकार के पोषण में जीवाणु मृत जीवों के शरीर के अवशेषों से भोजन
प्राप्त करते हैं। जैसे-लैक्टोबेसिलस (Lactobacillus)।


जीवाणुओं का आर्थिक महत्व (Economic importance of bacteria):

 जीवाणु लाभदाक एवं हानिकारक दोनों
प्रकार के होते हैं

लाभदायक जीवाणु (Useful bacteria)

1. भूमि की उर्वरता (Fertility) में वृद्धि :
कुछ जीवाणु भूमि की उर्वरता बढ़ाने का काम
हैं। राइजोवियम (Rhizobium) नामक जीवाणु जो दलहनी फसलों की जड़ों में उपस्थित गाँठ में पाया जाता है, वायुमण्डलीय नाइट्रोजन लेकर उसे नाइट्रेट में परिवर्तित करने में सक्षम हैं। चूँकि पीधे सीधे वायुमण्डल से नाइट्रोजन ग्रहण करने की क्षमता नहीं रखते हैं, इसलिए नाइट्रोजन नाइट्रेट के रूप में इन्हीं जीवाणुओं की मदद से प्राप्त होता है।

2. दूध का दही में परिवर्तन :
दूध से दही बनाने में जीवाणुओं का महत्वपूर्ण योगदान रह है। लैक्टोबेसिलस (Lactobacillus) नामक जीवाणु दूध में पाये जाने वाले केसीन (Casein) नामक प्रोटीन की छोटी-छोटी बूँदों को एकत्रित करके दही जमाने में सहायता करते हैं।

3. सिरका के निर्माण में :
शर्करा घोल (Sugar solution) का किण्वन का एसेटोबैक्टर एसेटी (Acetobacter aceti) नामक जीवाणु उसे सिरका में परिवर्तित कर देता है।

4. तम्बाकू की पत्ती में सुगंध एवं स्वाद बढ़ाने में :
बेसिलस मैगाथेनियम माइकोकोकस (Bacillus megathenium mycococcus) नामक जीवाणु का उपयोग तम्बाकू की पत्ती में सुगंध एवं स्वाद बढ़ाने में किया जाता है।

5. चाय की पत्तियों के ब्यूरिंग (Curing) में :
माइकोकोकस कोन्डीसैंस (Mycococcus
condisans) नामक जीवाणु द्वारा चाय की पत्तियों पर किण्वन क्रिया द्वारा क्यूरिंग(Curing)किया जाता है।

6. रेशों के रेटिंग में :
जल में पाए जाने वाले क्लोस्ट्रीडियम व्यूटीरियम (Clostridium
) नामक जीवाणु द्वारा जूट, पटसन और सन के रेशों का रेटिंग होता है।

7. लैक्टिक अम्ल के निर्माण में :
बैक्टीरियम लैक्टिसाई एसिडाई (Bacterium lactici adidi) और बैक्टीरियम एसिडाई लैक्टिसाई (Bacterium acidi lactici)नामक जीवाणु जो दूध में पाए जाते हैं, में पायी जाने वाली लैक्टोस (Lactose) शर्करा का किण्वन कर लैक्टिक अम्ल (Lactic acid) का निर्माण करते हैं।

8. प्रतिजैबिकी औषपियों के निर्माण में :
कुछ प्रति जैविकी औषधियाँ जीवाणुओं की किण्वन क्रिया द्वारा बनायी जाती है। जैसे-
प्रतिजेबिकी का नाम
जीवाणु क्या है उसकी खोज ,लक्षण ,संरचना और पोषण की पूरी जानकारी


हानिकारक जीवाणु (Harmful bacteria):
1. भोजन विषाक्तन (Food poisoning) :
कुछ जीवाणु जैसे-क्लोस्ट्रिडियम बोटूलिनियम
clostridium botulinium) भोजन को विषाक्त बना देते हैं।

2. बिनाइट्रीकरण (Denitrification):
कुछ जीवाणु नाइट्रेट, नाइट्राइट तथा अमोनियम
गौगिकों को स्वतंत्र नाइट्रोजन में परिवर्तित कर देते हैं जैसे-बैसिलस डिनाइट्रीफिकेन्स

3. पौधों में रोग (Disease in plants) : पौधों में होने वाले अनेक रोगों के लिए जीवाणु
उत्तरदायी होते हैं। जैसे-
(i) आलू का शैथिल रोग (Potato wilt) स्यूडोमोनास सोलेनिसियेरम (Pscudomonas
solanacearum) नामक जीवाणु द्वारा होता है।
(i) नींबू का कैंकर रोग (Citrus canker) जेन्थोमोनास सीट्री (Xanthomonas citri)
नामक जीवाणु द्वारा होता है।
(ii) गेहँ का टुन्डू रोग (Tundudisease) कोरीनो बेक्टीरियम ट्रिटिकी (Corynebacterium
tritici) नामक जीवाणु द्वारा होता है।
(iv) सेव का अग्निनीरजा रोग (Fire blight of apple) इरविनिया (Ervinia) नामक
जीवाणु द्वारा होता है।
(७) चावल का अंगमारी रोग (Blight of rice) जैन्थोमोनास ओराइजी (Xanthomonas
oryzae) नामक जीवाणु द्वारा होता है।
(vi)फलों में क्राउन गॉल (Crowngall) एग्रोबैक्टिरियम ट्यूमेफिसीयेन्स (Agro bacterium tumefaciens) नामक जीवाणु द्वारा होता है

4. पशुओं में रोग :
जीवाणुओं द्वारा जानवरों में अनेक रोग उत्पन्न होते हैं जैसे-
(i) जानवरों का काला पैर रोग (Blackleg of animals) क्लास्ट्रीडियम चावेई (Clostridium
Chauvei) नामक जीवाणु द्वारा होता है।
(ii) भेड़ में एन्ग्रैक्स रोग बेसिलस एन्थ्रेसिस (Bacillus anthrasis) नामक जीवाणु द्वारा
होता है।

5. मानव रोग (Human disease) : मनुष्यों में होने वाले अनेक रोग जीवाणुओं के
पैदा होते हैं। जैसे-

रोग का नाम---जीवाणु
1. हैजा (Cholera)-विब्रियो कॉलरी (Vibrio Cholerae)

2. डिप्थीरिया (Diphtheria)-कोरीनोबैक्टीरियम डिप्थीरी (Corynbacterium diphtheriae)

3. सुजाक (Gonorrhea)-गोनोकोकस गोनोराही (Gonococcus gonorahi)

4. कोढ़ या कुष्ठ (Leprosy)- माइकोवैक्टीरियम लेप्री (Mycobacterium leprae)

5. न्यूमोनिया (Pneumonia)-डिप्लोकोकस न्यूमोनी (Diplococcus pneumoniae)

6. प्लेग (Plague)-वैसिलस पेस्टिस (Bacillus pestis)

7. सिफलिस (Syphilis)-ट्रेपोनेमा पैलीडम (Treponema palidum)

৪.टाइफाइड (Typhoid)-साल्मोनेला टाइफी (Salmonella typhi)

9. तपदिक (Tuberculosis)- माइकोबैक्टीरियम ट्रयूबरकुलोसिस(Myobacterium tuberculosis)

10. टिटेनस (Tetanus)-क्लोस्ट्रीडियम टिटैनी (Clostridium tetani)

11. काली खाँसी
(Whooping cough)-हेमोफिलस परटूसिस (Hemophilous pertusis)


तो दोस्तो हमने इस पोस्ट में जीवाणु से मिलते जुलते पूरी महत्वपूर्ण टॉपिक पर इसमें चर्चा की है।यदि पोस्ट अच्छी लगी हो तो कृपया शेयर करे और कोई समस्या हो तो कृपया कमेंट करे
इसमें बहुत सारी बाते लूसेंट बुक से ही बताई गई है कृपया बुक को भी एक बार पढ़े।

विषाणु क्या होते है । खोज किसने की । प्रकार । की संरचना Virus in Hindi

विषाणु क्या है इसकी खोज किसने की, इसके प्रकार/Vishanu kya hai uski khoj kisane ki,iske prakar

हमने इसमें विषाणु के बारे में बताया है उसकी खोज,संरचना,लक्षण और प्रकार बताया है
विषाणु क्या होते है । खोज किसने की । प्रकार । की संरचना Virus in Hindi
विषाणु क्या है
विषाणु(Virus) एक प्रकार के संक्रमक फैलने वाला घटक (infectious agent) होते हैं हमेशा दूसरे जीवों के जीवित कोशिकाओं में पनपते हैं।और उन्हें नुकसान पहुंचते है। [विषाणु क्या होते है । खोज किसने की । प्रकार । की संरचना Virus in Hindi]

ये हर प्रकार के प्राणियों प्रभावित करने में सक्षम हैं।यह बैक्टीरिया को भी प्रभावित कर सकते है। यह सुक्ष्म परजीवी (parasites)  होते हैं जिनका आकार अत्यधिक छोटा(बैक्टीरिया से भी छोटा) होता है। यह खुद से पनपने(reproduce) में अक्षम हैं और  मेजबान शरीर के बाहर पनपते(पलते) रहते हैं।

विषाणुओं के कारण बहुत सारे भयानक रोगों का संचारण हुआ है। 2009 में भारत में स्वाइन फ्लू हुआ एवं 2014 में अफ़्रीकी देशों में इबोला नामक बीमारी फैला था, इन्ही के कारण हुआ था। जिससे कई बहुमूल्य जानें गयीं थी।
विषाणु क्या होते है । खोज किसने की । प्रकार । की संरचना Virus in Hindi

विषाणु की खोज

विषाणु(virus) की खोज रूसी वनस्पति वैज्ञानिक इवानोवस्की (Ivanovsky) ने 1892 ई. में की थी ।उन्होंने तम्बाकू की पत्ती में मोजैक रोग (Mosaic disease) के कारण की खोज करते समय विषाणु के बारे में बताया  था। लुई पाश्चर तथा बीजरिक ने इन्हें जीवित तरल संक्रामक का नाम दिया। एड्स (AIDS) के विषाणु को 1986 ई. में मानव प्रतिरक्षा अपूर्णता वाइरस (HIV) नाम दिया गया।

विषाणु बहुत छोटे, परजीवी, अकोशिकीय (Noncellular) और विशेष न्यूक्लियो प्रोटीन कण है, जो जीवित परपोषी के अन्दर रहकर जनन(Reproduction) करते हैं।इन्हे केवल इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की सहायता से ही देखा जा सकता है।विषाणुओं के अध्ययन करने वाली विज्ञान को विषाणु विज्ञान (Virology) कहा जाता है
विषाणु क्या होते है । खोज किसने की । प्रकार । की संरचना Virus in Hindi

विषाणु की संरचना (Structure of virus in Hindi

विषाणु संरचना में प्रोटीन के आवरण से घिरा न्यूक्लिक अम्ल होता है। बाहरी आवरण या capsid में बहुत सी प्रोटीन इकाइयाँ होती हैं जिनेcapsomere कहते हैं। सम्पूर्ण कण को विरियन (Virion) कहते हैं।
विषाणु को हम किसी भी तरह से जीवित प्राणी नहीं मान सकते हैं।उनके अंदर वो सभी चीजें होती है जो एक जीवित प्राणी में होती हैं जैसे कि न्यूक्लेइक एसिड, डीएनए, आरएनए आदि।लेकिन वे नुक्लेइक एसिड में पाए जाने वाले जानकारियों के अनुसार स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर सकते हैं।

विषाणु उन परजीवी प्राणियों की श्रेणी में आते हैं जो मेजबान कोशिकाओं के अंदर अपनी पनपते बनाते रहते हैं। मेजबान कोशिकाओं के बाहर विषाणु स्वयं का प्रजनन नहीं कर सकते क्योंकि उनके अंदर वह जटिल तंत्र नहीं पाया जाता जोकि कोशिकाओं के अंदर होता है।

मेजबान के कोशिका तंत्रो में पाए जाने वाले DNA कि मदद से विषाणु अपना RNA बना लेते हैं, इस पूरी प्रक्रिया को प्रतिलेखन (transcription) कहा जाता है एवं RNA में दिए गए संकेतों के हिसाब से प्रोटीन बना लेते हैं जिसे अनुवादन (translation) प्रक्रिया कहा जाता है।

विषाणु अच्छी तरह से एकत्रित हो जाते है तब से संक्रमण फैलाने योग्य हो जाते हैं, उनको वायरन कहा जाता है। इसके संरचना में नुक्लेइक एसिड पाया जाता है जो प्रोटीन से घिरा होता है।इसको कैप्सिड कहा जाता है जोकि एसिड को न्यूक्लिअसिस नाम के एंजाइम से नष्ट होने में बचाते हैं। कुछ विषाणुओं के पास सुरक्षा के लिए दूसरी परत भी होती है जो मेजबान के कोशिका झिल्ली का भाग होता है।


विषाणु के प्रकार (Types of virus in Hindi : 

परपोषी प्रकृति के अनुसार विषाणु मुख्यत तीन
प्रकार के होते हैं-
1. पादप विषाणु (Plant virus) :
 इन के अंदर न्यूक्लिक अम्ल आर.एन. ए. (RNA) होता है।
जैसे-टी.एम.वी.(T.M.V)


2. जन्तु विषाणु (Animal virus): 

इनमें न्यूक्लिक अम्ल सामान्यतः DNA होता है और कभी-कभी RNA भी होता है। जैसे-इनफ्लूएन्जा वायरस, मम्पस वायरस आदि।

3. बैकिद्रियीफेज (Bacteriophage) या जीवाणुभोजी :
 यह केवल जीवाणुओं (Bactena) के ऊपर आवित रहते हैं। इनमें न्यूक्लिक अम्ल के रूप में DNA पाया जाता है। जैसे- टी-2
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विषाणु के निर्जीव होने के लक्षण

1. ये कोशा रूप में नहीं होते हैं।
2. इनको क्रिस्टल (Crystal) बनाकर निर्जीव पदार्थ की भांति बोतल में भरकर कई वर्षों
तक रखा जा सकता है।

विषाणु के सजीव होने के लक्षण
1. इनके न्यूक्लिक अम्ल का द्विगुणन होता है।
2. ये किसी जीवित कोशिका में पहुँचते ही सक्रिय हो जाते हैं और एन्जाइमों का संश्लेषण
करने लगते हैं।

विषाणुओं में प्रजनन (Reproduction in virus): विषाणु गुणन (Multiplication) की
विधि के द्वारा प्रजनन करते हैं।

विषाणुओं से लाभ:
विषाणुओं से निम्नलिखित लाभ हैं-

1.विषाणओं में सजीव एवं निर्जीव दोनों के गुण पाए जाने के कारण इसका उपयोग जैव विकास के अध्ययन में किया जाता है।
2. विषाणुओं की सहायता से जल को खराब होने से बचाया जाता है। जीवाणुभोजी
जल को सड़ने से रोकता है।
3, ये नीले-हरे शैवालों की सफाई करने में सहायक होते हैं।

विषाणु से हानि :
विषाणुओं से होने वाली हानियाँ निम्नलिखित हैं-
1. विषाणुओं से पौधों में अनेक प्रकार के रोग होते हैं। टोबैको मोजैक वायरस (TMV) से
तम्बाकू की पत्तियों में मौजेक रोग होता है। बेनाना वायरस-1 के द्वारा केले में बंकी टॉप ऑफ बनाना (Bunchy top of banana) नामक पादप रोग होता है, जिससे केले की फसल को भारी नुकसान होता है। भारत में यह रोग इसके पड़ोसी देश श्रीलंका से आया है। आलू की फसल में पोटैटो मोजैक वायरस (Potato mosaic virus) द्वारा मोजैक रोग होता है जिसमें आलू की पत्तियाँ चितकबरापन (Mosaic) प्रदर्शित करती है।

2. वायरस द्वारा मनुष्यों में खसरा (Measles), पीत ज्वर , चेचक, हर्पींज (Herpes), इन्फ्लूएन्जा (Influenza), पोलियो , रेवीज, गलसुआ, ट्रेकोमा , एड्स (AIDS), मस्तिष्क शोथ (Encephalitis)
आदि खतरनाक रोग होते हैं।

खसरा रोग पैरामिक्सौ वायरस से बच्चों में होता है जिससे सम्पूर्ण शरीर प्रभावित होता है।
पीत ज्वर अरबो वायरस (Arbo virus) द्वारा मच्छड़ों के काटने से होता है। चेचक में तीव्र ज्वर में शरीर में काफी दर्द होता है तथा चेहरे एवं छाती पर धब्बे पड़ जाते हैं। हर्षीज रोग हर्पीज वायरस द्वारा वच्चों में होता है। इन्फ्लूएन्जा श्यसन तंत्र का गम्भीर रोग है जो ऑर्थोमिक्सो वायरस के द्वारा होता है। वच्चों में पोलियो का सक्रमण स्पाइनल कॉर्ड तथा अस्थिमज्जा में होता है।

रेबीज(Rabies) रोग को हाइड्रोफोविया के नाम से भी जाना जाता है। इस रोग के लिए उत्तरदायी वायरस का संक्रमण मस्तिष्क में होता है। गलसुआ, एक ऐसा सग है जो मनुष्य के जीवनकाल में केवल एक बार होता है। यह रोग मनुष्यों में लार ग्रन्थि को प्रभावित करता है जिससे ग्रन्थियों में सूजन आ जाती है। ट्रेकोमा एक प्रकार का नेत्र रोग है जो विषाणुओं द्वारा होता है। इस रोग में मनुष्य के नेत्र में सूजन और जलन आ जाती है।एड्स (AIDS) नामक रोग का पूरा नाम एक्वायई इम्यूनो डिफिसिएन्सी सिन्द्रोम  है। यह रोग HIV नामक वायरस से होता है । इस रोग के कारण मनुष्य के शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली नष्ट हो जाती है जिसकी वजह से शरीर अनेक गम्भीर रोगों की चपेट में आ जाते है।
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एड्स होने के कारण : 
एड्स निम्नलिखित पाँच कारणों से होता है-
1. संक्रमित रक्ताधान (Blood transfusion) करने पर
2. असुरक्षित यौन सम्बन्धों से
3. संक्रमित सूइयों के प्रयोग से
4. संक्रमित माता के गर्भ में पल रहे बच्चे को
के ।
5. संक्रमित व्यक्ति के रेजर (Razor), टूथब्रश आदि से भी एडू्स हो सकता है।

एड्स से बचने के उपाय :

1, एक ही सहभागी जिसे संक्रमण न हो से यौन सम्बन्ध रखना चाहिए।
2. सम्भोग (Matting) के समय कण्डोम का प्रयोग करना चाहिए।
3. स्टरलाइज्ड (Sterlized) सूइयों का प्रयोग करना चाहिए।

नोट : एड्स साथ भोजन करने, बातचीत करने, चुम्बन तथा साथ रहने से नही फैलता है।

एड्स निवाकर औषधियाँ : एड्स निवारक प्रमुख औषधियाँ निम्नलिखित हैं-HIV-III,
कम्बीनेशन थिरेपी, AZT-3, सुरामीन, साइक्लोस्पोटीन, रिवाबाइरीन, एल्फा
इन्टरफेरॉन, HPA-23, 2-3 डाइडीऑक्सीसाइटीडीन आदि ।

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