यकृत के कार्य देखे

इस पोस्ट में मैंने यकृत के बारे में जानकारी दी है और इसके क्या कार्य होते है

यकृत या जिगर या कलेजा ( Liver)

यकृत(liver)क्या है । इसके कार्य और रोग के लक्षण क्या
यकृत(liver)क्या है । इसके कार्य और रोग के लक्षण

शरीर का एक अंग है जो केवल कशेरुकी प्राणियों में पाया जाता है। इसका कार्य विभिन्न चयापचयों को detoxify करना, प्रोटीन को संश्लेषित करना, और पाचन के लिए आवश्यक जैव रासायनिक बनाना है मनुष्यों में, यह पेट के दाहिने-ऊपरी हिस्से में डायाफ्राम के नीचे स्थित होता है और मानव शरीर की शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है, जो पित्त का निर्माण करती है। पित्त, यकृती वाहिनी उपतंत्र तथा पित्तवाहिनी द्वारा ग्रहणी तथा पित्ताशय में चला जाता है। पाचन क्षेत्र में अवशोषित आंत्ररस के उपापचय का यह मुख्य स्थान है। इसके निचले भाग में नाशपाती के आकार की थैली होती है जिसे पित्ताशय कहते है। यकृत द्वारा स्त्रावित पित्त रस पित्ताशय में ही संचित होता है। चयापचय में इसकी अन्य भूमिकाओं में ग्लाइकोजन भंडारण का विनियमन, लाल रक्त कोशिकाओं का अपघटन और हार्मोन का उत्पादन शामिल है।यकृत शरीर की सबसे बड़ी एवं व्यस्त ग्रंथि हैं जो कि हल्के पीले रंग पित्त रस का निर्माण करती हैं यह भोजन में ली गई वसा के अपघटन में पाचन क्रिया को उत्प्रेरक एवं तेज करने का कार्य करता हैं।
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इसका एकत्रीकरण पित्ताशय में होता हैं यकृत अतिरिक्त वसा को प्रोटीन में परिवर्तित करता हैं एवं अतिरिक्त कार्बोहाइड्रेट को ग्लूकोज में परिवर्तित करने का भी कार्य करता हैं। जो कि आवश्यकता पढ़ने पर शरीर को प्रदान किए जाते है।

वसा के पाचन के समय उतपन्न अमोनिया (विषैला तरल पदार्थ) को यकृत यूरिया में परिवर्तित कर देता हैं। यकृत पुरानी एवं क्षति ग्रस्त लाल रक्त कणिकाओं को मार देता हैं।
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यकृत(liver)क्या है, इसके कार्य और रोग के लक्षण
यकृत(liver)क्या है । इसके कार्य और रोग के लक्षण

स्वाभावित लक्षण

यह लालपन लिए भूरे रंग का बड़ा मृदु, सुचूर्ण एवं रक्त से भरा अंग है। मृदु होने से अन्य अंगों के दाब चिन्ह इस पर पड़ते हैं, फिर भी यह अपना आकार बनाए रखता है। यह श्वासोछवास के साथ हिलता रहता है। यकृत के दो खंड होते है, इनमें दक्षिण खंड बड़ा होता है। यकृत पेरिटोनियम गुहा के बाहर रहता है। यकृत उदरगुहा में सबसे ऊपर डायाफ्राम के ठीक नीचे, विशेष रूप से दाहिनी ओर रहते हुए, बाईं ओर चला जाता है। स्वाभाविक अवस्था में पर्शकाओं के नीचे इसे स्पर्श नहीं किया जा सकता।

यकृत का स्वरूप

यह पाँच तलवाले नुकीला भाग वाम ओर रहता है। अन्य चार तल ऊर्ध्व, अध:, पूर्व तथा पश्च कहलाते हैं। इसका अध: तल चारों ओर पतले किनारे से घिरा रहता है तथा उदर गुहा के अन्य अंग इस तल से संबद्ध रहते हैं।

माप एवं भार

इसकी दक्षिण-बाम लंबाई 17.5 सेंमी0, अध: ऊँचाई 16 सेंमी तथा पूर्व-पश्च चौड़ाई 15 सेंमी होती है। इसका भार शरीर के भार का 1/50 भाग के लगभग, प्राय: 1,500 ग्राम से 2,000 ग्राम तक होता हैं। शरीर के भार से इसके भार का अनुपात स्त्री पुरूषों में एक ही होता है, परंतु वय के अनुसार बदलता है। बालकों में इसका भार शरीर के भार का 1/20 भाग होता है।

पृष्ठ भाग


दक्षिण पृष्ठ उत्तल और चौकोर होता है। यह डायाफ्रॉम से संबद्ध रहता है, जो इसे दक्षिण फुप्फुसावरण और छह निचली पर्शुकाओं से विलग करता है।


उर्ध्व पृष्ठ


यह दोनों ओर उत्तल तथा मध्य में अवतल होता है। यह डायाफ्रॉम द्वारा दोनों फुफ्फस, फुप्फुसावरण तथा ह्रदयावरण से विलग हो जाता है।

अग्र पृष्ठ

यह त्रिभुजाकार होता है। त्रिभुज का आधार दाहिने होता है। इसके सामने उदरीय ऋजु पपेशियाँ उनका आवरण उदर सीवनी तथा हँसियाकार स्नायु रहते हैं।

अधपृष्ठ

यह उत्तलावतल होता है। यह दक्षिण वृक्क, दक्षिण उपवृक्क,वृहदांत्र दक्षिण बंक (Right flexure),पक्वाशय का द्वितीय भाग, पित्ताशय तथा आमाशय से संबद्ध रहता है। ये अंग प्राय: इस पर अपना खाता सा बना लेते हैं।

निर्वाहिका यकृत

यह अनुप्रस्थ दिशा में 5 सेंमी लंबा खाता है। यह यकृत के अध: तल पर रहता है। इसके दोनों ओष्ठ पर लघुता संलग्न रहता है। इसमें ये यकृत् धमनी, निर्वाहिका शिरा एवं नाड़ियाँ यकृत् में प्रवेश करती हैं संयुक्त यकृत् वाहिनी और लसिका वाहिनियाँ बाहर निकलती हैं।

पश्च पृष्ठ

यह सामने वक्र बनाते हुए रहता है। दाहिने डायाफ्राम द्वारा दक्षिण पर्शुकाआं, दक्षिण फुप्फुस और उसके फुप्फुसावरण से विलग किया जाता है तथा दक्षिण अधिवृक्क से संबद्ध रखता है। अध: महाशिरा इसमें लंबी खात बनाते हुए जाती है। इस खात के वाम भाग में दक्षिण यकृत खंड का एक और खंड है, जिसे पुच्छिल खंड कहते हैं, जो महाधमनी के वक्षीय भाग डायाफ्राम द्वारा विलग किया जाता है। पुच्छिल खंड वाम खंड से एक विदर द्वारा अलग किया जाता है, जिसमें शिंरा स्नायु रहता है। इस स्नायु विदर के वाम और वाम खंड के पश्चिम पृष्ठ पर ग्रसिका खाता रहता है।

पेरिटोनियम के द्विगुणित पर्त इसके स्नायु बनाते हैं। ये स्नायु हैं:

चक्रीय (coronary),हँसियाकार (falciform),गोल (teres),सिरा,

वाम एवं दक्षिण त्रिकोण (triangular) स्नायु तथालघुवपा (lesser omentum)।

पुच्छिल खंड

यह काम ओर शिरा स्नायु के विदार, दक्षिण और अध: महाशिरा विदार ओर निर्वाहिका यकृत के मध्य से होता हुआ दक्षिण खंड से जुडा रहता है, पुच्छिल प्रवर्ध (Caudatte process) कहते हैं। इसके वाम और पुच्छिल खंड का नुकीला भाग अंकुरक प्रवर्ध कहलाता (Papillary process) हैं।

चतुरस्त्र खंड

यकृत अध:पृष्ठ पर दिखाई देता है। इसके वाम और तंत्र स्नायु विदर तथा दक्षिण ओर पित्ताशय खुला रहता है।

यकृत स्नायुओं, उदरीय अन्त: दाब, रक्त वाहिनियों तथा वायुमंडलीय दाब के कारण अपने स्थान पर स्थित रहता है।


रक्तवाहिनियाँ एवं नाड़ियाँ


1. यकृत धमनी उदरगुहा (coeliac) धमनी की शाखा है।

निर्वाहिका शिरा- पाचन तंत्र से पाचित अन्नरसयुक्त रक्त लाती है।

यकृत शिराए- रक्त को अध: महाशिराएँ ले जाती है।

लसिकावाहिनियाँ- ये यकृत शिराओं और निर्वाहिका शिरा के साथ जाती हैं। यकृत की अनुंपी तथा परानुकंपी तंत्रिकाएँ सीलक जाती तथा वेगस तंत्रिका से आती हैं।

कार्य

ग्लूकोज से बनने वाले ग्लाइकोजन (शरीर क लिये इन्धन) को संग्रहित करना। आवश्यकता होने पर, ग्लाइकोजन ग्लूकोस में परिवर्तित होकर रक्तधारा में प्रवाहित हो जाता है।

पचे हुए भोजन से वसाओं और प्रोटीनों को संसिधत करने में मदद करना।

रक्त का थक्का बनाने के लिये आवशक प्रोटीन को बनाना।

विषहरण (डीटॉक्सीफिकेशन)

भ्रुणिय अवस्था में यह रक्त (खून) बनाने का काम भी करता है।

bile salt और bile pigment का स्रवण करता है!

रक्त से bilirubin को अलग करता है.

गैलेक्टोज को ग्लूकोज में परिवर्तित करता है.

कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन को वसा में परिवर्तित करता है .

antibody और antigen का निर्माण करता है.


यकृत और पित्ताशय के

यकृत शरीर में स्थित, सबसे बड़ी ग्रंथि है। इसका अधिकांश उदरीय कोटर के ऊपरी दाएँ भाग में स्थित है। इसका भार 1.2 से 1.4 किलोग्राम के लगभग होता है। यकृत दो प्रमुख पालियों (lobes), दाहिने और बाएँ, में विभक्त है। ये पालियाँ अनेक पालियों में बँटी हुई हैं। योजी ऊतक (connective tissue) से समूचा यकृत घिरा हुआ है।

पित्ताशय नाशापाती के आकार की, 3-4 इंच लंबी और एक इंच, या इससे कुछ चोडी, थैली होती है। यह यकृत की सतह के नीचे होती है और उससे ऐरियोला (areola) ऊतकों द्वारा जुड़ी होती है।

शरीररचना विज्ञान
यकृत-पालिकाएँ (lobules), जो यकृत की शारीरीय (anatomical) इकाइयाँ हैं, यकृत-कोशिकाओं के बाहृा विकिरणकारी स्तंभों से बनी होती हैं। इसमें छोटी नलिकाओं (यकृती वाहिकाओं, निर्वाहिका शिरा और यकृतधमनी) के तीन पृथक् समूह होते हैं, जो केंद्रीय शिरा के चारों ओर व्यवस्थित होते हैं।

कार्य

यकृत शरीर के अत्यंत महत्वपूर्ण अंगों में से है। यकृत की कोशिकाएँ आकार में सूक्ष्मदर्शी से ही देखी जा सकने योग्य हैं, परंतु ये बहुत कार्य करती हैं। एक कोशिका इतना कार्य करती हैं कि इसकी तुलना एक कारखाने से (क्योंकि यह अनेक रासायनिक यौगिक बनाती है), एक गोदाम से (ग्लाइकोजन, लोहा और बिटैमिन को संचित रखने के कारण), अपशिष्ट निपटान संयंत्र से (पिपततवर्णक, यूरिया और विविध विषहरण उत्पादों को उत्सर्जित करने के कारण) और शक्ति संयंत्र से (क्योंकि इसके अपचय से पर्याप्त ऊष्मा उत्पन्न होती है) की जा सकती है।

पित्ताशय उस पित्त को सांद्र और संचित करता है, जो उसमें यकृतवाहिनी और पित्ताशय वाहिनी द्वारा प्रविष्ट होता है। जब उदर और आँतों में पाचन होता रहता है, तब पिताशय संकुचित होता है, जिससे सांद्रित पित्तग्रहणी (duodenum) में निष्कासित हो जाता है।

पीलिया

रक्त में पित्तारूण (bilirubin) के आधिक्य से यह रोग होता है, जो नेत्र श्लेष्मला (conjuncttiva) और त्वचा के पीलेपन से प्रकट होता है। पीलिया सर्वप्रथम नेत्रश्लेष्मला में और फिर क्रमश: चेहरे, गर्दन, शरीर और अंगों में प्रकट होता है। मोटे तौर पर तीन शीर्षकों में इसका वर्गीकरण किया जा सकता है:

(1) अवरोधक (obstructive),

(2) विषाक्त (toxic) और संक्रामक (जिसे अब यकृत-कोशिकीय (hepato-cellular) कहते हैं) तथा

(3) हीमोलिटिक (haemolytic)।

खुजली बहुधा होती है, जो त्वचा की संवेदी तंत्रिकाओं (sesitive nerves) में पित्त के घटकों से होनेवाली उत्तेजना (irritation) से होती है। पित्त लवण धारण (retention) के कारण रोग की प्रारंभिक अवस्था में नाड़ी मंद पड़ जाती है। भोजन में अनिच्छा, भार में कमी, पेशियों में दुर्बलता की शिकायत हाती है। पित्त के कारण बृहदांत्र की पीड़ा के आक्रमण अनेक अनेक रूप में होते हैं। उदाहरणार्थ, ऊपरी चतुर्तांश में दाईं ओर दबाव या, भराव का विकीर्ण (diffuse) संवेदन, या, लाक्षणिक (typical) उदर पीड़ा हो सकती है, या पेट में मरोड़ और उदरीय भिक्ति में स्पर्शासहायता (tenderness) हो सकती है। हल्का, या तेज ज्वर हो सकता है, जिसका कारण होता है यकृत कोशिकाओं को परिगलन (necrosis), या स्वत:लयन (autolysis) और सारणियों में आनुषंगिक संक्रमण। यकृत में संश्लिष्ट होनेवाले विटामिन 'के' (k) की कमी से कभी से कभी श्लेष्मझिल्लियों (mucusmembreanes) से, खासतौर से नाक और मसूड़ों से, रक्तस्राव (haemorrhage) हो सकता thenहै और उनमें परप्यूरा की दशा उत्पन्न हो सकती है।

यकृत परिगलन

इस रोग के प्रधान लक्षण, यकृत कोशिकाओं का तीव्र परिगलन और यकृत की कोशिकाओं के स्वत:लयन, के कारण यकृत की आकृति का सिकुडना तथा पीलिया, ज्वर और संमूर्च्छा से प्राय: जीवन का अंत होता है। तीव्र और उपतीव्र यकृतपरिगलन यकृत की कोशिकाओं के तीव्र विषाक्तन से होते हैं। यकृत की कोशिकाओं के कोशिकांतर किण्व (intercellular ferments) मुक्त होते हैं और स्वत:लयन उत्पन्न करते हैं। पीलिया की पहली अवस्था में ज्वर की बेचैनी, वमन, कब्जियत और पेशियों में पीड़ा होती है। दूसरी अवस्था में यकृत की खराबी के कारण आकस्मिक तंद्रालुता, शिरोवेदना, दीप्तिभीति (photophobia), बेचैनी, संज्ञाहीनता (delirium) और उन्मादजन्य लाक्षणिक रोना चीखना प्रारंभ होता है। पेशियों के स्फुरण (twitching) और ऐंठन से रोगी उग्र हो उठता है। अंतत: सम्मुर्छा और उद्दीप्त श्वसन होता है तथा मलमूत्र का संयम छूट जाता है।

यकृत का सूत्रण रोग
यकृत का सूत्रण रोग यकृत की वह अवस्था है जिसमें नये रेशेदार ऊतकों के विकास से यकृत कठोर होने लगता है। इसके दो प्रधान कारण हो सकते हैं, जिनसे अधिकांश, या सभी यकृत सूत्रणरोग की व्याख्या हो जाती है:

(1) वाइरस, रोगाणु संक्रमण या विषाक्त पदार्थों से यकृत कोशिकाओं का सीधे क्षतिग्रस्त (direct damage) होना तथा

(2) आहार दोष, जैसे प्रोटीन की कमी और ऐल्कोहॉल के आधिक्य से अपभ्रष्ट (degenerate) होकर मर जाती हैं। बढ़े हुए कठोर यकृत, प्लीहा की अपवृद्धि, या अल्प पीलिया से रोग का निदान करना संभव हो जाता है।

यकृत का केंसर

इसकी वृद्धि निम्नलिखित क्रम से होती है:

प्राथमिक वृद्धि

यकृत के कैंसर की प्राथमिक वृद्धि यकृत कोशिकाओं, ओर कभी कभी पित्तवाहिनी कोशिकाओं, में होती है। यकृत् कोशिकाओं में होनेवाले कैंसर को हेपैटोमा ओर पित्तवाहिनी कोशिका में होनेवाले कैंसन को कोलैंगिऔम कहते हैं। ये दोनों प्राय: सूत्रणरोगग्रस्त यकृत में होते हैं। सूत्रण रोग से ग्रस्त रोगियों के लगभग 7 प्रतिशत में प्राथमिक केंसर पाया जाता है।

द्वितीयक वृद्धि

कैंसर के कारण यकृत कोशिकाएँ यकृत से दूर अंत:संचरित (infiltrated) हो जाती हैं। और इनसे वक्ष, उदर, बृहदांत्र और गर्भाशय का कैंसर हो सकता है। यकृत् असामान्य रूप से बढ़कर कठोर हो जाता है। 50 प्रतिशत रोगियों में पीड़ा, प्रगामी तथा स्थायी पीलिया और जलोदर (ascites) विद्यमान रहता है। शरीर क्षीणता और भार की कमी होने लगती है। रोगी की मृत्यु अवश्य होती है।

यकृत का प्रदाह

यकृतशोथ लागू हो सकता है, जो यकृत क कोशिकाओं के क्षतिग्रस्त होने से होते हों। क्षतिग्रस्त होने के कारण रासायनिक, भौतिक, तथा जैवाणुक और प्रोटोजाआ, या विषाणु हो सकते हैं। यकृत शोथ में केवल यकृत के अपकर्षी परिवर्तन ही नहीं आते, जो उपर्युक्त कारकों के कारण होते हैं, अपितु उसमें अभिक्रियात्कत (reaction) और क्षतिपूर्ति वाले प्रतिकार्य भी आते हैं। सब रोगियों में ज्वर और पीलिया सामान्य रूप से पाया जाता है।

आजकल यह मान लिया जाता है कि यकृत शोथ का परिवर्तित लक्षण पीलिया है। यकृत शोथ के अंतर्गत जो अनेक विक्षोभ (upsets) आते हैं, उनमें संक्रामी यकृत शोथ का उल्लेख करना आवश्यक है। यकृत् शोथ के अधिकांश रोगियों को पीलिया (icterus) नहीं होता। लाक्षणिक रूपरेखा प्राय: तीन शीर्षकों में प्रस्तुत की जाती है: (1) प्राथमिक अवस्था, (2) स्पष्ट अवस्था, या पीलिया का काल तथा (3) उपशमन (convalescence) काल। यह रोग ज्वर और अन्य लक्षणों के साथ अचानक आक्रांत कर देता हे।

पिताशय का प्रदाह

यह स्ट्रेप्टोकॉकस ई. कोली (E. coli), या बी. टाइफोसस (B. Typhhosus) जीवों की संक्रमण क्रिया के फलस्वरूप होता है। लगभग 40 वर्ष की अवस्थावाली मोटी स्त्रियाँ ही अधिकांश इस रोग का शिकार होती हैं। पर सभी उम्र के पुरूषों में यह रोग हो सकता है। साधारणत: रोगी नाभिप्रदेश (umblicus) में पीड़ा की शिकायत करता है, जो फैलकर दक्षिण अधेपास्मिक प्रदेश (ypochondriac region) तक चली जाती है। मतली, वमन और ज्वर की अनुभूति होती है। नाड़ीस्पंद सामान्यत: बढ़ जाता है। यदि उपर्युक्त प्रदेश में हल्का दबाब डाला जाय और रोगी से लंबी साँस खिंचवाई जाय, तो पित्ताशय स्पर्शपरीक्षक उँगलियों तक उतर आएगा और प्रदाह होने पर रोगी को इतना दर्द होगा कि वह साँस तोड़ देगा।

अश्मरी या पथरी

अधेड़ स्त्रियों के पित्ताशय और पित्तीय मार्ग में अश्मरी हो जाती है। यह उनेक प्रकार की हाती है। रोग क्रमश: अग्निमांद्य (dyspepsia) और उदरवायु (flatulence) की शिकायत करने लगता है। वह कुछ विशेष खाद्य, खासकर विशेष खाद्य, खासकर वसीय पदार्थों, को खाने में असमर्थता प्रकट करता है, इसे खाने पर उसे मतली, भारीपन और अधिजठर (epigastrium) में पीड़ा होती है। प्राय: अधापर्शुक वेदना (subcostal pain) का नियतकालिक आक्रमण होता है, जो कंधें तक फैल सकता है। पित्तीय बृहदांत्र में पत्थर को बाहर निकालने के प्रयास में होनेवाली पीड़ा सबसे कष्टप्रद होती है। यह अतिशय यंत्रणादायक पीड़ा प्राय: आधी रात को अकस्मात् प्रारंभ होती है ओर कुछ समय रहकर एकाएक बंद भी हो जाती है।

पित्ताशय और पित्तवाहिनी का कैंसर- यह रोग बहुत विरल होता है। पुरूषों की अपेक्षा 50 वर्ष की अधेड़ स्त्रियों में इसकी संभावना तिगुनी रहती है। 75 प्रतिशत रोगियों में कमी पर रक्तक्षीणता के अभाव के साथ पित्ताशय के रोग की बारंबारता के उदाहरण मिलते हैं। उदर के ऊपरी, दाएँ, अर्धभाग में स्थायी पीड़ा, जो दहिने अंसफलक क्षेत्र (scapular regtion) की ओर बहुधा फैलती जाती है, बनी रहती है। उदरवायु, मतली, वमन, आदि वामान्य लक्षण हैं। रोगी की मृत्यु प्राय: हो जाती है।

रोकथाम एवं उपचार

यकृत और पित्ताशय के रोगों की रोकथाम और उपचार निम्नलिखित है:

रोकथाम

रोकथाम का प्रधान साधन वैयक्तिक वृत (personol hygiene) पर ध्यान और सामान्य सफाई है। जठरांत्र शोथतथा अनिदानित ज्वर रोगियों के संपर्क में आनेवालों, तथा महामारी काल में सभी के लिये, आहार और सफाई के सावधानियों का पालन परमावश्यक है। गामाग्लोबिन का उपयोग कुछ सुरक्षा प्रदान करता है। पहने से ही प्रोटीन और पोषाहारों का पर्याप्त मात्रा में ग्रहण रोग की भयंकरता को कम करने में महत्वपूर्ण सिद्ध होता है।

रूग्णावस्था में रोगी को सदा लिटाए रखना चाहिए। कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीनयुक्त आहार रोगी को आरंभ से ही स्वच्छंदता से खिलाना चाहिए। आहार में वसा कम रहनी चाहिए। यकृत रोगों के उपचार में ऐमिनो अम्ल तथा विटामिनों का मौखिक, या पेशी आभ्यंतर द्वारा, सेवन रोग को कम करता है।

उपचार

चिकित्सा

यकृत रोगों में रक्तस्राव प्रवृति के लिये विटामिन सी और के, पित्तीय प्रतिरोधि (antiseptic) के रूप में हेक्सामिन, तथा पित्तीय पथ के संप्रवाह के लिये मैग सल्फ और सोडा सल्फ प्रयुक्त करते हैं। प्रतिश्रोध शक्ति के कम हो जाने के कारण यकृत को सुधारने के लिये ऐंटिवायोटिक औषधियों का व्यवहार करते हैं।

शल्यचिकित्सा

यकृत के रोगों में उपर्युक्त चिकित्सा का महत्व नगण्य है। पित्ताशय के रोगों में उपर्युक्त चिकित्सा के असफल रहने पर, या औषधि के प्रभावहीन सिद्ध होने पर, शल्य चिकित्सा का उपयोग करते हैं जैसे पथरी में होता है।

यकृत अधिकांश जीव जंतुओं के शरीर का आवश्यक अंग हैं। इस लेख में मानव शरीर से संबंधित उल्लेख है। यकृत मनुष्य के शरीर में पाई जाने वाली सबसे बड़ी तथा महत्त्वपूर्ण पाचक ग्रन्थि होती है। यह उदरगुहा के दाहिने ऊपरी भाग में डायाफ्राम के ठीक नीचे स्थित होता है तथा आन्त्रयोजनीयों द्वारा सधा रहता है। यह लाल–भूरे रंग का बड़ा, कोमल, ठोस तथा द्विपालित अंग होता है। दोनों पालियाँ बहुभुजीय पिण्डकों से बनी होती हैं। इनके चारों ओर संयोजी ऊतकों का आवरण होता है जिसे ग्लीसन कैप्सूल कहते हैं।

यकृत पिण्डक यकृत कोशिकाओं से बने होते हैं, इनसे पित्त का स्रावण होता है। पित्त पित्ताशय में संग्रहित होता रहता है। पित्त में पाचक एन्जाइम नहीं पाए जाते हैं, लेकिन यह फिर भी पाचन में सहायता करता है।

यकृत के कार्य

यकृत के निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण कार्य हैं-

पित्त रस का स्रावण- यकृत पित्त रस का स्रावण करता है। इसकी प्रकृति क्षारीय होती है। इसमें पित्त लवण, कोलेस्ट्राल, वर्णक कोशिकाएँ पाई जाती हैं।

भोजन के माध्यम को क्षीरीय बनाता है।

वसा का इमल्सीकरण करता है।

हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करके भोजन को सड़ने से बचाता है।

पित्त वर्णक, लवण आदि पदार्थों को उत्सर्जित करता है।

ग्लाइकोजिनेसिस- आवश्यकता से अधिक ग्लुकोज का संचय ग्लाइकोजन के रूप में करता है। यह प्रक्रिया ग्लाइकोजिनेसिस कहलाती है।

ग्लूकोजीनोलाइसिस- रुधिर में ग्लूकोज़ की मात्रा कम होने पर यकृत कोशिकाएँ ग्लाइकोजन को पुनः ग्लूकोज़ में बदल देती हैं। यह प्रक्रिया ग्लूकोनियोजिनेसिस कहलाती है।

ग्लाइकोनियोजिनेसिस- आवश्यकता पड़ने पर यकृत कोशिकाओं के द्वारा अमीनों अम्लों तथा वसीय अम्लों से ग्लूकोज़ का निर्माण किया जाता है। इस क्रिया को ग्लाइकोनियोजिनेसिस कहते हैं।

वसा एवं विटामिन्स का संश्लेषण- यकृत कोशिकाएँ वसा तथा विटामिन्स का संश्लेषण एवं संचय का कार्य करती है।

  • एन्जाइम का स्राव करना
  • विटामिन्स का संचय
  • डीएमीनेशन
  • यूरिया का संश्लेषण
  • उत्सर्जी पदार्थो का निष्कासन
  • विषाक्त पदार्थों का विषहरण
  • रुधिराणुओं का निर्माण एक विखण्डन
  • अकार्बनिक पदार्थों का संश्लेषण
  • रुधिर प्रोटीन का संश्लेषण
  • हिपैरिन का स्रावण
  • जीवाणुओं का भक्षण
  • लसीका उत्पादन, संचय


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यकृत क्या है इससे संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी

यकृत से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदु


  1. यकृत का वजन 1.5 से 2 किलोग्राम का होता हैं।
  2. इसका  PH मान 7.5 होता हैं।
  3. यकृत आंशिक रूप से ताँबा, और लोहा को संचित रखता हैं।
  4. जहर/विष देकर मारे गए व्यक्ति की पहचान यकृत के द्वारा ही की जाती हैं।
  5. यकृत द्वारा ही पित्त स्त्रावित होता हैं यह पित्त आँत में उपस्थित एंजाइम की क्रिया को तीव्र कर देता हैं।
  6. यकृत प्रोटीन की अधिकतम मात्रा को कार्बोहाइड्रेट में परिवर्तित कर देता हैं।
  7. फाइब्रिनोजेन नामक प्रोटीन का उत्पादन यकृत से ही होता हैं जो रक्त के थक्का बनने में मदद करता हैं।
  8. हिपैरिन नामक प्रोटीन का उत्पादन यकृत के द्वारा ही होता हैं जो शरीर के अंदर रक्त को जमने से रोकता हैं।
  9. मृत RBC को नष्ट यकृत के द्वारा ही किया जाता हैं।
  10. यकृत शरीर के ताप को बनाए रखने में मदद करता हैं।
  11. भोजन में जहर देकर मारे गए व्यक्ति की मृत्यु के कारणों की जाँच में यकृत एक महत्वपूर्ण सुराग होता हैं।


यकृत से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर


प्रश्न1. यकृत का वजन कितना होता हैं?
उत्तर:- 1.5 से 2 किलोग्राम

प्रश्न2. यकृत का PH मान कितना होता हैं?
उत्तर:- 7.5

प्रश्न3. मृत RBC को नष्ट किसके द्वारा किया जाता हैं
उत्तर:- यकृत

प्रश्न4. यकृत का एकत्रीकरण कहाँ होता हैं?
उत्तर:- पित्ताशय

प्रश्न5. यकृत अतिरिक्त वसा को किस में परिवर्तित करता हैं?
उत्तर:- प्रोटीन
प्रश्न6. मानव शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि कौन सी हैं?
उत्तर:- यकृत

प्रश्न7. जहर/विष देकर मारे गए व्यक्ति की पहचान किसके द्वारा की जाती हैं?
उत्तर:- यकृत

प्रश्न8. मानव शरीर की सबसे व्यस्त ग्रंथि कौन सी हैं?
उत्तर:- यकृत


प्रश्न9. फाइब्रिनोजेन नामक प्रोटीन का उत्पादन कहाँ से होता हैं?
उत्तर:- यकृत


प्रश्न10. यकृत आंशिक रूप से किस से संचित रहता हैं?
उत्तर:- ताँबा और लोहा
👇👇👇👇👇 इस पोस्ट में मैने अपने सभी दोस्तो के लिए लिवर यकृत के बारे में पूरी जानकारी दी है यदि अच्छी लगी हो तो कृपया कमेंट करे